वोटरों को आर्थिक न्याय देने के लिए लोकतांत्रिक वित्त व्यवस्था

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बाजार के बंजर में लोकतंत्र की फसल पैदा कैसे हो?

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लोकतंत्र रुपी शरीर में पैसा रक्त की तरह काम करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बाज़ार वाले देशों में लोकतंत्र की मशीनरी भी पैसे से ही चलती है। पैसा न मिले तो सरकारी कर्मचारी, पुलिस और सेना के लोग भी प्रधानमंत्री का आदेश नहीं मानेंगे। पैसा नहीं मिले, तो न्यायाधीश मुकदमे सुनना बंद कर देंगे। पैसा न मिले उद्योगपति उद्योग बंद कर देंगे और व्यापारी व्यापार करना बंद कर देंगे। पैसे न मिले तो नौकरी करने वाले नौकरी छोड़ देंगे। पैसा न मिले तो वकील अपने मुवक्किल का मुकदमा नहीं लड़ेगा। निष्कर्ष यह है कि बाज़ार वाले देशों मे पैसे के बिना काम करना और काम लेना संभव नहीं होता।

जनप्रतिनिधि जनता का वकील, किन्तु जनता फीस नहीं देती!

बाज़ार की व्यवस्था में सभी लोग जिसका काम करते है, उससे पैसा लेते है। लेकिन जनप्रतिनिधि जिसका काम करता है, उससे पैसा नहीं लेता। इसलिए जनप्रतिनिधित्व के नाम पर नेता लोग सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व भले ही कर लें किन्तु वफादारी के साथ अपने वोटरों की आर्थिक वकालत और आर्थिक प्रतिनिधित्व नहीं करते। 99% वोटर अपने जनप्रतिनिधि को पैसा नहीं देते, इसलिए जनप्रतिनिधि 99% लोगों का केवल आभासी जनप्रतिनिधि होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिस “चुनाव तंत्र” को “लोकतंत्र” कहने की प्रथा चल रही है, वह चुनाव तंत्र मात्र 1% लोकतंत्र है। यह 99% लोकतंत्र नहीं है। यह लोकतंत्र अधिक से अधिक 1% लोगों के लिए है। यह 99% बहुसंख्यकों के ऊपर 1% अति धनवान अल्पसंख्यकों की तानाशाही है। इसलिए इसको लोकतंत्र कदापि नहीं कहा जा सकता। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि चुनावतंत्र लोकतंत्र स्थापित करने का कोई माध्यम कभी नहीं रहा है। लोकतंत्र स्थापित करने के माध्यम की खोज करना अभी बाकी है। आरडीआर की परिकल्पना ऐसा ही एक माध्यम है, जिससे लोकतंत्र पैदा हो सकता है।

जनप्रतिनिधियों को वोट के साथ चंदा भी देना जरूरी क्यों?

अपवादों को छोड़ दिया जाए तो जिन देशों में बाज़ार होता है, वहां लोग प्राइवेट डॉक्टरों पर सरकारी डॉक्टरों की तुलना में अधिक विश्वास करते हैं। क्योंकि सरकारी डॉक्टर को रोगी नहीं देता, पैसा सरकार देती है। ‌प्राइवेट डॉक्टर को पैसा रोगी देता है, सरकार नहीं। डॉक्टर जिससे पैसा पाता है, उसके प्रति जिम्मेदार और वफादार होता है। इसी प्रकार प्राइवेट मास्टर बच्चों से सीधे पैसा पाता है। इसलिए उनके प्रति जिम्मेदार होता है। किंतु सरकारी मास्टर बच्चों के प्रति उतना जिम्मेदार नहीं होता, क्योंकि वह सरकार से पैसा पाता है। इसी प्रकार जब जनप्रतिनिधि जनता को सेवाएं देता है तो पैसा सरकार से क्यों लेता है? जब समाज ने वस्तुओं और सेवाओं को लोगों तक पहुचने के लिए सरकार व्यवस्था की बजाय बाज़ार व्यवस्था को स्वीकार कर रखा है, तो जनप्रतिनिधि का नियमित खर्च सरकार के बजाय वोटरों को ही उठाना चाहिए. तभी जनप्रतिनिधि अपने वोटरों के प्रति वफादार हो सकते है, जनता का राज संभव हो सकता है और नेताओं का राज ख़त्म हो सकता है. ।

वोटरों को नियमित पैसा क्यों दे सरकार?

अगर समाज के बहुसंख्यक लोगों के पास अपने जनप्रतिनिधि को उसकी सेवाओं के बदले भुगतान करने के लिए पैसा नहीं है, तो सरकार को चाहिए कि वह वोटरों को पैसा यानी स्कालरशिप की तर्ज पर वोटरशिप दे, जिससे वोटर लोग अपने मनपसंद जनप्रतिनिधि को भुगतान करके चुनाव जीतने में मदद कर सकें. सरकार वोटरों को पैसा इसलिए दे, क्योंकि सरकार ने करेंसी नोट छापने की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी है। सरकार यदि सभी वोटरों को वोट के अधिकार के साथ-साथ प्रतिमाह कुछ नकद रकम देने लगे और उसका कुछ प्रतिशत अपने मनपसंद नेता को और पार्टी को देना अनिवार्य कर दे तो चुनाव तंत्र में भी लोकतंत्र के पौधे का अंकुरण हो सकता है। जब लोकतंत्र पैदा हो, तब लोकतांत्रिक कानून बन सकेंगे। जब लोकतांत्रिक कानून बनेगे, तभी कानून और संविधान की किताबों में लिखे हुए अधिकारों का उपभोग करने की क्षमता सभी वोटर हासिल कर सकेंगे।

आज सभी लोगों को रोजगार का अधिकार तो है, लेकिन रोजगार नहीं है। सभी लोगों को न्यायालयों से न्याय पाने का अधिकार तो है, लेकिन न्याय प्राप्त नहीं होता। अपने जनप्रतिनिधि के माध्यम से अपने हितों पर कानून बनवाने का अधिकार प्राप्त तो है, लेकिन बहुसंख्यक वोटरों को आर्थिक न्याय देने के लिए कानून नहीं बनते। इसीलिए पार्टिया बदलती रहती हैं, सरकारें बदलती रहती हैं, लेकिन बहुसंख्यक धनहीन समाज पर अल्पसंख्यक धनवान समाज का आर्थिक जुल्म चलता रहता है। ऊट की पीठ पर कोई भी बैठे, सभी कमर हिलाते दिखाई देते है.

आरडीआर से खत्म होगी आर्थिक गुलामी

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अल्पसंख्यक धनवानों के आर्थिक हित में काम करने वालों को पैसा मिल जाता है. किन्तु बहुसंख्यक धनहीन समाज को आर्थिक न्याय देने के लिए काम करने वालों को पैसा नहीं मिलता। इसलिए बहुसंख्यक समाज के सामूहिक आर्थिक हितों के लिए कोई कानून नहीं बन पाते। जो आधे अधूरे कानून बने भी हैं, वह लागू नहीं हो पाते। अल्पसंख्यक धनवान लोगों के हितों के लिए और सरकारी कर्मचारियों के हितों के लिए सरकार करेंसी नोट छाप लेती है और उनमें बांट देती है। लेकिन बहुसंख्यक समाज को छपी नोट में से कोई हिस्सा नहीं देती। सस्ते मजदूरों के सुलभता के लिए और सस्ते निर्यात के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी बहुसंख्यक समाज को जानबूझकर सरकारें आर्थिक तंगी में रखती हैं। इसलिए जरूरत से ज्यादा उत्पादन होने के बावजूद भी बहुसंख्यक समाज की पहुंच अनाज से, कपड़े से, बिल्डिंग मटेरियल से, दवाइयों से, शिक्षा और चिकित्सा की सेवाओं तक नहीं बन पाती। यह कृतिम आर्थिक तंगी वास्तव में गरीबी नहीं है, अपितु आर्थिक गुलामी है। आर्थिक गुलामी सरकार प्रायोजित आभासी लोकतंत्र के कारण है. आभासी लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में रूपांतरित करने के लिए 21 वीं शताब्दी में लोकवित्त और राजनीतिक वित्त के क्षेत्र में कुछ उपाय किया जाना अपरिहार्य है। जिससे बहुसंख्यक समाज की आर्थिक गुलामी खत्म हो सके, जिससे कानूनी, संवैधानिक, मानवाधिकारों, अंतर्राष्ट्रीय और वैश्विक अधिकारों का उपभोग करने का अधिकार सभी को प्राप्त हो सके, जिससे न्यायालयों से न्याय प्राप्त करना और विधायिका से न्यायप्रिय कानून प्राप्त करना सबके लिए संभव हो सके तथा जिससे सरकारों के शासन और प्रशासन से लोगों की सेवा हो सके, जिससे कथित लोकतांत्रिक शासन और प्रशासन बहुसंख्यक समाज के दमन और आर्थिक शोषण का जरिया न बना रह सके. आरडीआर की परिकल्पना लोकवित्त और राजनीतिक वित्त के क्षेत्र में प्रस्तावित एक ऐसा ही उपाय है।