1. भारत की 14 वीं लोकसभा, सन 2005 से 2008 के बीच और राज्यसभा में कुल 137 सांसदों ने सकल घरेलू आमदनी में मशीनों के, प्राकृतिक संसाधनों के और कानूनों के हिस्से की गणना करने और उस नकद रकम को हर महीना वोटरों से खाते तक पहुंचाने के लिए संसद के दोनों सदनों में
श्री विश्वात्मा @ भरत गांधी व अन्य की याचिका प्रस्तुत किया। लेकिन संसद की कमेटियों ने अपना काम नहीं किया। संसद की नोटिस के बाद सरकार ने भी अपना काम नहीं किया। सन 2011 में संसद की गोयल कमेटी द्वारा मंजूर कर लिए जाने के बाद भी न तो संसद ने कुछ किया, न तो सरकार ने। तब यह निष्कर्ष निकला कि वोटरों की वोट से चुनी गयी संसद और सरकार अल्पसंख्यक धनवान लोगों के लिए कार्यरत हैं, बहुसंख्यक समाज इनका गुलाम है। यह लोकतंत्र कदापि नहीं है। इसलिए राजनीतिक पार्टियों के चंदे का विकल्प तलाशा जाना चाहिए.
3. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक
आदेश / नोटिस दिनांक 13.08.२०११ जारी करते हुए भारत सरकार के कृषि मंत्री को कहा कि वह अदालत को हलफनामे के माध्यम से यह बताएं कि देश के अनाज के गोदामों में कितने प्रतिशत अनाज सड़ा दिया जाता है। इस प्रश्न का उत्तर सरकार ने देते हुए कहा कि 80% अनाज सड़ा दिया जाता है। तब माननीय न्यायालय ने यह आदेश जारी किया कि हर साल सड़ाया जाने वाला
80% अनाज गरीबों में बांट दिया जाए। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय को धमकी भरे अंदाज में कहा कि
अदालते अपनी हद में रहें। इससे यह प्रमाणित हुआ कि सरकार की नीति है कि अनाज भले सड़ जाए लेकिन यह लोगों को खाने के लिए न मिले। इससे प्रमाणित हुआ कि सरकारें देश की बहुसंख्यक जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती, अपितु उनके ऊपर आर्थिक गुलामी बनाकर रखने के लिए काम कर रही हैं।