आरडीआर सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं को “जनसेवा” के बदले वेतन देने का माध्यम है-
सरकार की भाषा में “जनता की सेवा” को “लोकसेवा” कहा जाता है। इसीलिए सरकारी कर्मचारियों द्वारा किये गए कामों को “लोकसेवा” माना जाता है। सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया काम “जनता की सेवा” माना जाता है। लोकसेवा का काम करने के बदले वेतन देने की परंपरा है। लेकिन “जनता की सेवा” करने के बदले वेतन देने की परंपरा अब तक नहीं थी। पौधों को पानी यदि सरकारी कर्मचारी दे, तो उसको वेतन मिलता है। पौधों को पानी अगर कोई समाजसेवी दे, या कोई राजनीतिक कार्यकर्ता दे, तो सरकार उसको वेतन नहीं देती। इसीलिए कोई काम अगर सरकारी कर्मचारी करें, तो सरकार उसे वेतन देती है और अगर वही काम सामाजिक संगठन और राजनीतिक पार्टी का कोई कार्यकर्ता करें, तो सरकार उसको वेतन नहीं देती।
RDR सरकारों के राजनीतिक अंधविश्वासों को समाप्त करने के लिए सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की क्रांति है और पारिश्रमिक की मांग के लिए एक संकल्प है
सरकारों के राजनीतिक अंधविश्वासों को समाप्त करने के लिए क्रांति और सभी सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा सरकार द्वारा पारिश्रमिक की मांग करना 21वीं सदी और आगे की सदियों की जरूरत है । “लोक सेवा के बदले सरकार वेतन देगी और “जनता की सेवा” के बदले सरकार वेतन नहीं देगी” – सरकारों का यह विश्वास अब “राजनीतिक अंधविश्वास“ माना जाता है। इसलिए कार्य के बदले वेतन सिर्फ सरकारी कर्मचारियों को ही नहीं । जब तक सरकार का ‘अन्धविश्वास’ ख़त्म नहीं होता, तब तक के बदले वेतन देने का काम करेंसी नोट में तो संभव नहीं है किंतु यह वेतन एक प्रमाण पत्र के रूप में दिया जा सकता है। सभी सामाजिक संगठनों और राजनीतिक पार्टियों के लोग अपने काम के बदले वह प्रमाण पत्र हासिल करें और सरकार पर दबाव डाल के अपना बकाया वेतन सरकार की करेंसी नोट में लें। पारिश्रमिक की मांग के लिए इस तरह का संकल्प सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक सुधारकों द्वारा अपनाया जाना चाहिए ।
आरडीआर कार्य मूल्यांकन प्रमाणपत्र है-
बेरोजगार या सामाजिक और राजनीतिक कार्य में रुचि रखने वाला कोई भी व्यक्ति अपने परिश्रम का योगदान देता है तो इन सभी को अपने योगदान के एवज में एक प्रमाणपत्र मिलना चाहिए, जो एक नोट नुमा डिजाइन के ही रूप में ही होना चाहिए, इसको आरडीआर का नाम (संज्ञा) दिया गया है।
आरडीआर समाज के लिए किये गए अनुदान का प्रमाणपत्र है
आरडीआर आर्थिक रूप से निम्न व मध्य वर्ग के आर्थिक व राजनीतिक हितों के लिए किये जाने वाले कार्यों के सम्पादन हेतु दिये जाने वाले आर्थिक अनुदान के बदले में जारी प्रमाण पत्र है।
आरडीआर जन विरोधी कामों और भ्रष्टाचार रोकने का उपाय है- कारपोरेट घराने चंदे के नाम पर एक रूपया राजनीतिक दलों में निवेश करके सैकड़ों, यहां तक कि कभी-कभी हजार गुना रकम भ्रष्ट तरीके से वापस वसूल लेते हैं। यह आर्थिक बोझ समाज के बहुसंख्यक निम्न व मघ्य वर्ग पर पड़ता है. कारपोरेट घराने सत्ता में आई पार्टी के नेताओं से गैरकानूनी काम और भ्रष्टाचार करवाने के लिए उन्हें चंदा देते हैं और साथ ही साथ प्रमुख विपक्षी दलों को भी चंदा देते रहते हैं। जब चुनाव के बाद पहली पार्टी की जगह विपक्षी पार्टी सत्ता में आती है, तो यह कारपोरेट घराने उससे भी जन विरोधी व गैर कानूनी काम और भ्रष्टाचार करवाते हैं। जिसकी वजह से सत्ताधारी पार्टी बदलने के बावजूद आम जनता को सत्ता परिवर्तन का लाभ, विशेषकर अपेक्षित आर्थिक लाभ नहीं मिल पाता।
आरडीआर लोकतंत्र को अल्पमत की बजाय बहुमत से संचालित करने का उपाय है- यह सर्वविदित है कि संसदीय लोकतंत्र संचालित करने का दायित्व राजनीतिक दलों पर होता है किंतु चंदे और मीडिया की ताकत से कारपोरेट घराने सत्ताधारी राजनीतिक दलों को और सरकार को स्वयं संचालित कर रहे हैं। इसके कारण पूरा संसदीय लोकतंत्र व संपूर्ण संवैधानिक मशीनरी जनमत से संचालित होने की बजाय गिने-चुने कारपोरेट घरानों की निजी इच्छा से संचालित हो रही है। लोकतंत्र बहुमत की बजाय अल्पमत से संचालित हो रहा है। यानी लोकतांत्रिक राज्य की मृत्यु हो चुकी है और संवैधानिक मशीनरी का विध्वंस होने की परिस्थिति पैदा हो चुकी है।
आरडीआर कंपनीतंत्र और चुनावतंत्र को लोकतंत्र में रूपांतरित करने का उपाय है- आर्थिक रूप से निम्न व मध्यम वर्ग को आर्थिक न्याय दिलाने के उद्देश्य को प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा है-कारपोरेट संस्थानों के असीम धन की ताकत से संचालित बड़े राजनीतिक दल और उनके मीडिया संस्थानों द्वारा निर्मित व निर्देशित किया जाने वाला जनमत। चुनावतंत्र से लोकतंत्र भी पैदा हो सके इसके लिए कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने पर कानूनी रोक लगनी चाहिए, क्योकि जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधि होता है, कंपनियों का नहीं. चूंकी कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने पर रोक नहीं है; इसलिए जनप्रतिनिधि “कंपनी प्रतिनिधि” की तरह काम करने को विवश हैं। इसीलिये वर्त्तमान शासन तंत्र को “लोकतंत्र” कदापि नहीं कहा जा सकता। इसे “कम्पनीतंत्र” कहा जाना चाहिए। कंपनियों द्वारा चंदा देने पर रोक लगाने वाला कानून बनने के बावजूद यदि चोरी-छिपे कोई कारपोरेट घराना किसी राजनीतिक दल को चंदा देता है तो उसे अपराध की श्रेणी का कार्य माना जाना चाहिए।